Tuesday, 14 February 2017

अवधी महाकाव्य पद्मावत

विधना के मारग हैं तेते सरग नखत तन रोआं जेते।
मलिक मोहम्मद जायसी का आप्तवाक्य हिन्द का हितू है। 
रानी पद्मावती अथवा ‘पद्मावत’ कथानक भारत सिंहल मैत्री का दर्पण है।
इन दिनों राजस्थान में पद्मावती प्रकरण अखबारों की सुर्खियां बढ़ा रहा है। टाइम्स आफ इंडिया ने शीर्षक Whose Padmawat ? से अपने संपादकीय में एक लेख प्रकाशित किया। मलिक मोहम्मद जायसी ने अवधी भाषा और फारसी लिपि में पद्मावती महाकाव्य रचना की, अवधी में रामचरित मानस और पद्मावती दो उच्च स्तर के महाकाव्य हैं। जायसी ने कहा - जायस नगर धरम अस्थानू जहां जाय कवि कीन्ह बखानू। पद्मावती महाकाव्य भारत और सिंहल (वर्तमान श्रीलंका) दो सभ्यताओं का संगम है। टाइम्स आफ इंडिया का संपादकीय राजस्थान मुख्यमंत्री महाशया वसुन्धरा राजे से अपेक्षा कर रहा है कि जिन्होंने महाशय भंसाली व उनकी फिल्म पर आक्रमण किया उन्हें दंडित किया जाये। अखबार कहता है - पद्मावत अथवा रानी पद्मावती की दंतकथा सोलहवीं शती सूफी कवि ने लिखी। सूफी संत ने जो काव्य रचना की उसका शीर्षक पद्मावती नहीं पद्मावत है। टाइम्स आफ इंडिया 179 वर्ष पुराना अखबार है। उसके संपादकीय विभाग को यह जानकारी होनी चाहिये थी कि पद्मावत महाकाव्य में कवि का कहना क्या है ? पद्मावत की मुख्य कथ्यात्मकता रानी पद्मिनी संबंधी बारहमासा है। हिन्दुस्तान में मेष से लेकर मीन तक बारह राशियां उनके नाम पर बारह महीनों का नाम क्रमशः वैशाख, जेठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ, फाल्गुन और चैत्र होते हैं जो संक्रांति से मासांति तक चलते हैं। ऐसा लगता है यदि टाइम्स आफ इंडिया के संपादकीय लिखने वाले महानुभावों ने मलिक मोहम्मद जायसी लिखित पद्मावती पढ़े बिना ही यह प्रकरण उछाल डाला। फिल्म व ग्रंथ दो अलग अलग विषय हैं। फिल्म निर्माता अपने तरीके से लोकाकर्षण के लिये किसी ग्रंथ में वर्णित विषय को लोकाकर्षक बनाने केे लिये क्षेपक भी जोड़ सकते हैं। यदि कोई साहित्य वास्तविक घटनाओं पर आधारित हो जैसा कि रानी पद्मिनी व सिंहल के राजकुमार का प्रेम प्रसंग है जिसे एक नहीं अनेक भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत किया गया है इसका सही सही आकलन तभी हो सकता है जब आंतर भारती साहित्य का एक दूसरे से मेलजोल का रास्ता अपनाया जाये। पद्मावत महाकाव्य का सटीक अध्ययन किये बिना स्थानीय दंतकथाओं अथवा रानी पद्मिनी के अलाउद्दीन खिलजी संबंधी संपर्कों को एकांगी तरीके से प्रस्तुत करने से भी समस्याओं की बाढ़ आती है। रानी पद्मिनी और सिंहल के राजकुमार के पारंपरिक आकर्षण को पद्मावत महाकाव्य ने चित्रित किया है। यह हो सकता है कि किसी अन्य यक्षिणी का अलाउद्दीन खिलजी से संपर्क रहा हो और क्षेपक विशेषज्ञों ने उसे रानी पद्मिनी उपाख्यान से जोड़ डाला हो जिससे राजस्थान के राजपूत रियासतों की जो स्त्री पुरूष संबंधों संबंधी विशेषतायें थीं उनका प्रस्तुतीकरण फिल्म के रूप में करने से कुछ लोगों की भावनाओं पर ठेस पहुंच रही हो। टाइम्स के संपादकीय कक्ष को भी चाहिये कि वे पद्मावत का पुनर्वाचन करें। पद्मावत का समकालीन दूसरा अवधी ग्रंथ रामचरित मानस है। वाल्मीकि के रामायण तथा तुलसी के रामचरित मानस के आधार पर रामानंद सागर ने रामचरित को इस तरह प्रस्तुत किया कि वे लोग भी रामायण से प्रभावित हुए जिनका राम या रामराज सहित हिन्द के बहुसंख्यक समाज की मान्यताओं से सीधा वास्ता नहीं था। अखबार ने राजस्थान की मुख्यमंत्री महोदया से अपेक्षा की है कि संजय लीला भंसाली एवं उनके सहयोगियों को जिस विरोध का सामना करना पड़ रहा है उसे अखबार ने ला एंड आर्डर का विषय करार दिया है। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष में तो लोकमत का कोई न कोई हिस्सा रहेगा ही। रामायण तथा रामचरित मानस में व्यक्त विचारों के अनुरोध व विरोध में भी लोग बोलते रहते हैं पर तुलसी दास ने रामचरित मानस की रचना में काशी के विद्वत् जनों का जो विरोध सहा अपना रास्ता छोड़ा नहीं, रामकथा को लोकभाषा अवधी में प्रस्तुत कर जहां स्वांतः सुखाय रघुनाथ गाथा का भाषा में प्रस्तुतीकरण किया। बहुत से लोग तो वाल्मीकि के रामायण व तुलसी के रामचरित मानस को भी दंतकथा या अंग्रेजी में टेल यानी कर्ण मधुर लगने वाली बनावटी कथा गान वास्तव में गाथा व दंतकथा में धरती आसमान का अंतर है। कवि अथवा कहानीकार जो लिखता है वह बेकार नहीं जाता। चिंतन पोखर में उपजी गाथा वास्तविकता में भी परिणित हो सकती है। जहां तक वास्तविक रानी पद्मिनी और सिंहल राजकुमार के आकर्षण प्रत्याकर्षण का प्रसंग है उसे मलिक मोहम्मद जायसी ने घटना के घटित होते समय नहीं संभवतः सैकड़ों वर्ष उपरांत काव्यायित किया। जरूरत इस बात की महसूस होती है कि पद्मावत महाकाव्य को जिसकी पृष्ठभूमि राजपूताना की राजपूत मान्यतायें हैं उस पर विचार किया जाये। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने रहने के स्थान को धरम अस्थानू कह कर - धर्मभूमि को अपनी कर्मभूमि बताया। कथानकों हजारों मील दूर सिंहल व सैकड़ों मील की दूरी पर स्थित राजपूताना की रियासत में जन्मी रानी पद्मिनी का घर राजपूताना की रियासती कथाओं तथा सिंहल व राजपूताना के मध्य जो मानवीय आधार था उसका तत्कालीन अनुभव तथा कालांतर में यक्षिणी गाथा के रूप में गाया जाने लगा। रानी पद्मिनी प्रकरण, महाशय भंसाली ने किस रूप में अपनाया इस प्रकरण में अलाउद्दीन खिलजी का पदार्पण कैसे होगया ? यदि अलाउद्दीन खिलजी प्रकरण को क्षण भर के लिये वास्तविक भी मान लिया जाये मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत सृजन तथा अलाउद्दीन खिलजी जो कि ऐतिहासिक व्यक्तित्त्व है, के कालचक्र में कितना फर्क था ? राजस्थान की मुख्यमंत्री महाशया को तो लोकमत का सम्मान करना ही होगा। यदि राजपूताना की एक नहीं कई पूर्व रियासतों के वर्तमान भारतीय नागरिक फिल्म के खिलाफ आंदोलन के लिये कमर कस लेते हैं तो कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये मुख्यमंत्री महोदया क्या करें ? मुख्यमंत्री राजस्थान को लोकमत का भी ध्यान रखना होगा राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है जहां भारत के आजाद होने से पहले अनेक रियासतें थीं, उनकी अपनी राजनैतिक हस्ती भी थी। ज्यादातर रियासतें राजपूत राजाओं के नेतृत्व में राजकाज चलाती थीं। उन रियासतों का एक दूसरे से संबंध भी एक विशिष्ट शैली वाला था। ज्यादातर राज्यों में बर्तानी सरकार के रेजिडेंट तैनात थे। उनका मुख्य कार्य वायसराय को राज्य की स्थिति का ब्यौरा हर पखवाड़े भेजना होता था। ये रेजिडेंट बर्तानी सरकार की नीतियों से रियासत को अवगत कराते रहते थे पर रियासतों की अन्दरूनी राजनीतिक तथा एक रियासत का दूसरी रियासत से राजनीतिक ताल्लुकात कैसे हैं इन पर बर्तानी सरकार तब तक हस्तक्षेप नहीं करती थी जब तक कोई अनहोनी घटना की आशंका न हो। एक प्रसंग विचारणीय है भक्त मीराबाई का। मीराबाई राजा खानदान की महारानी थीं तब भारत भक्तिकालीन कवियों का मुल्क था। दिल्ली में सल्तनत इस्लामी थी पर आसेतु हिमाचल भक्तियोग बढ़त पर था। भक्ति मार्ग में चलने वाले कवियों, वैरागियों तथा उच्चकोटि के भक्ति काव्य रचनाकारों को मीरा ने कहा - यहां तो एक ही पुरूष है गिरिधर गोपाल बाकी तो सब गिरिधर गोपाल की गोपियां सरीखे भक्त हैं। भक्त कवियों की जमात में जब मीरा ने अपना कथ्य कहा, किसी ने मीरा की भक्तिधारा का खुल कर विरोध नहीं किया। मीरा ने गिरिधर गोपाल से पूछा - किसे अपना गुरू - दीक्षा देने वाला गुरू मानूँ। गिरिधर गोपाल ने मीरा को काशी के गंगा तट पर रहने वाले संत रैदास का नाम बताया और कहा जाओ, रैदास से गुरूमंत्र लो। मीरा रैदास के पास काशी पहुंची रैदास ने कहा - महाराणी तुम क्षत्रियाणी हो मैं चर्मकार हूँ। तुम्हें दीक्षा देने का पात्रताधारक नहीं हूँ। मीराबाई ने संत भक्त रैदास से कहा - मुझे गिरिधर गोपाल ने आपसे दीक्षा लेने को कहा है। भक्ति मार्ग का यह अनूठा उदाहरण है। मीराबाई को गिरिधर गोपाल को अपना पति मानने व तदनुसार जीवन जीने की कला अपनाने में स्वयं राजपूताना के राजपूत समाज का विरोध अहर्निश सहना पड़ा पर मीरा ने अपना मार्ग छोड़ा नहीं। वे गिरिधर गोपाल की चहेती बनी रहीं। मीरा का कथ्य बहुत पुराना नहीं उसी समय खंड का है जब काशी में तुलसी दास रामकथा गारहे थे तथा ब्रज में सूर कृष्ण कथा छन्दान्वित कर रहे थे। अकबर के नवरत्नों में अब्दुल रहीम खानखाना सरीखे भक्त कवि राजकाज भी चलाते जारहे थे। रानी पद्मिनी तथा सिंहल राजकुमार प्रकरण मीराबाई प्रकरण से हजारों नहीं तो सैकड़ों वर्ष पूर्व घटित या कल्पित घटना थी इसलिये पद्मावत महाकाव्य को दुबारा पढ़ना जरूरी होगया है। संभव है संजय लीला भंसाली महाशय ने पद्मावत महाकाव्य पूरा अथवा उसका वह अंश पढ़ा हो जिससे उन्हें पद्मावती फिल्म बनाने में जिज्ञासा जाग्रत हुई। राजस्थान की मुख्यमंत्री महोदया को भी अवधी के आकर्षक महाकाव्य - पद्मावत का ताजा अध्ययन करा कर सिंहल व राजपूताना के मध्य जो रमणीयता का अद्भुत चित्रण पद्मावत में किया गया है। पद्मावत डिंगल या राजस्थान में बोली जाने वाली भाषाओं में नहीं वरन अवधी में लिखा गया। कवि जिसने यह ग्रंथ रचा नागरी लिपि नहीं जानता था पर अवध का वासी होने के कारण अवधी बोलता था उसकी मातृभाषा भी अवधी ही थी उसने फारसी लिपि व अवधी भाषा में पद्मावत काव्य की रचना की। 
राजस्थान सरकार की राजभाषा नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी है पर राजस्थान के लोग डिंगल तथा राजपूताना की स्थानीय भाषाओं को बोलते हैं इसलिये जो समस्या आज महाशय वसुन्धरा राजे को राजस्थान की लोकनेत्री होने के नाते उनके लिये लोकसंग्रह की हेतु बन चुकी है उन्हें फिल्मकार तथा फिल्म का विरोध कर रहे राजपूत समाज को यह परामर्श देने की जरूरत है कि वे रानी पद्मिनी तथा सिंहल राजकुमार आकर्षण प्रत्याकर्षण प्रसंग को राजपूताना में व्याप्त लोकमत को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझाने का प्रयत्न करें। विभिन्न राजपूताना रियासतों में जो लोकगीत लोकनृत्य तथा चारण कथायें रानी पद्मिनी के बारे में आज भी जिस रूप में गायी जाती हैं उन्हें महाकाव्य पद्मावत के कथ्यात्मक प्रसंगों से आकलन करने का प्रयास किया जाये। भारतीय वाङमय की एक विशेषता यह है कि यहां आत्मदोष का भी निरूपण होता आया है। यहां का आदर्श गुण न हेरानो गुणग्राहक हेरानो है। यूरप की डैमोक्रेसी व हिन्दुस्तान की पुरानी पंचायत व्यवस्था व मान्यताओं में धरती आसमान का फर्क है। आज भारत का आदर्श मैकोलाइट अंग्रेजीदां भद्रलोक की आत्म श्रेष्ठता है। हमारा भद्रलोक आज केवल अपने करने को सोचता है उसका गुणगान करता है। मतभिन्नता विचार भिन्नता से सामंजस्य करने का राही नहीं है। यही वह मुख्य कारण है जिससे भारतीय राजकर्ता व प्रशासनकर्ता समाज किंकर्तव्यविमूढ़ सा प्रतीत होता है इसलिये विवेकशील लोगों को आगे बढ़ कर साहित्यिक, ऐतिहासिक तथा समाज के व्यापक स्तर में जो विभेद दिखते हैं उनमें सामंजस्य वाला रास्ता अपनाना ही चाहिये। सिंहल राजकुमार रानी पद्मिनी तथा सत् साहित्य पद्मावत महाकाव्य का सटीक सामयिक निरूपण आज की तात्कालिक आवश्यकता है। भारत सरकार के संबंधित मंत्रालय जो भारतीय भाषाओं में आंतर भारती विधा का प्रयोग सामयिक समझते हैं उन्हें पद्मावत महाकाव्य के समानांतर गुजराती, सिंधी, पंजाबी, मराठी, कोंकणी, कन्नड़, मलयाली, तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगला, असमी, मइती, नैपाली भाषाओं में रानी पद्मिनी काव्यात्मकता का भी अनुशीलन करने के लिये संबंधित आंतर भारती भाषाओं में रानी पद्मिनी कथानक को प्रकाश में लाना चाहिये। भारत का जो मंत्रालय फिल्म डिवीजन पुरानी लोककथाओं लोककल्पना मूलक फिल्म निर्माण करने का जब शिव संकल्प लें जिस भाषा में फिल्म बनती है उसके अतिरिक्त आंतर भारती भाषाओं में फिल्म के विषय वस्तु साहित्य की छायात्मकता याने जिस भारतीय भाषा में फिल्मांकित किये जारहे प्रकरण को किस तरह चित्रित किया गया है उसका मार्गदर्शन करता रहे ताकि भारतीय संस्कृति अथवा गंगा यमुना संस्कृति सहित भारतीय समाज की वास्तविकता का प्रदर्शन समग्र रूप से फिल्म में संभव हो सके। यदि कोई विरोधी विचार सामने आता है उसका भी समाधान संकल्पित हो। 
रामचरित मानस ने विश्व भर में अपनी साख स्थापित कर ली। तुलसीदास का वह शिव संकल्प साकार होगया जिसमें उन्होंने कहा था - स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा मति मंगल मातुनेति। तुलसी ने रामगाथा स्वान्तः सुखाय गाई। विद्वत् समाज का विरोध सहते हुए अपना मार्ग छोड़ा नहीं इसलिये तुलसी दास का रामचरित मानस आज दुनियां के हर कोने कोने में पहुंच चुका है। रामचरित मानस के समान महत्वपूर्ण महाकाव्य कामायनी है। मनुष्य समाज के मनु शतरूपा से लेकर आज तक के मनुष्य की जो अवधारणायें हैं उन्हें कामायनी ने जयशंकर प्रसाद की लेखनी से उजागर किया है। आज हिन्द की जरूरत ही यह है कि जिस तरह रामचरित मानस घर घर में गाया जारहा है पद्मावत कामायनी तथा सत्य हरिश्चन्द्र नाटक सरीखे काव्यों के प्रति लोकाकर्षण को स्थायित्व देने का उपक्रम किया जाये। कामायनी तो आधुनिक हिन्द काव्य का अमृत रस है। पद्मावत की रचना तब हुई जब हिन्द में ब्रज व अवधी भाषाओं के जरिये भक्ति काव्य अस्तित्व में आरहे थे इसलिये राजस्थान ही नहीं भारत सरकार को भी चाहिये कि मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत महाकाव्य के महत्व को समझा जाये और उसे उतनी ही महत्ता मिल सके जो तुलसी के रामचरित मानस मिली है। इसके लिये जहां एक ओर भारत श्रीलंका सांस्कृतिक संबंधों को मजबूती मिलेगी वहीं एक सूफी कवि द्वारा जो साहित्य प्रस्तुत हुआ है उसकी गरिमा का लाभार्जन हिन्दुस्तान के लोग कर सकते हैं। तात्कालिक जरूरत यह भी है कि फारसी लिपि में लिपिबद्ध पद्मावत का प्रकाशन मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय द्वारा संपन्न हो। पद्मावत का वैसा प्रकाशन जैसा कवि ने लिखा है उसे संपन्न किये जाने से हिन्द की भाषायी संकाय में एक नये अध्याय का भी सूत्रपात हो सकता है। यही है साने गुरू जी की आंतर भारती भाषायी सहअस्तित्व की कुंजी। सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में पद्मावत महाकाव्य का निर्माण और पद्मावत  के नागरी लिपि में प्रकाशन के समानांतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सबका साथ सबका विकास इस गुरूमंत्र के जरिये वह अवसर शासक दल के सामने उपस्थित है कि पद्मावत महाकाव्य का प्रकाशन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के मार्गदर्शन में चलने वाले मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय को यथा संभव मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा फारसी लिपि में लिखित पद्मावत का प्रकाशन संकल्पित करना चाहिये। जिस दिन अवध के मुसलमान वो शिया हों या सुन्नी मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य को फारसी लिपि अवधी भाषा में पढ़ेंगे एक भाषायी क्रांति आ सकती है। भारत विभाजन में कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्न जो वस्तुतः गुजराती भाषी शिया मुसलमान थे उन्हें संयुक्त प्रांत अवध व आगरा के उर्दू भाषी मुसलमानों मुख्यतया अवध के शिया मुसलमानों का समर्थन था जिसकी वजह से हिन्द का मजहबी आधार पर बंटवारा करने में बर्तानी सरकार सफल हुई। पद्मावत महाकाव्य को उर्दू भाषी अवध के मुसलमानों को पढ़ने को उपलब्ध कराया जायेगा तो हिन्द की हिन्दू मुस्लिम समस्या के निराकरण का रास्ता प्रशस्त हो सकता है पद्मावत में वह शक्ति संपात क्षमता विद्यमान है। प्रधानमंत्री का ध्यानाकर्षण राजस्थान में उपजी समस्या के समाधान के लिये रामबाण औषध है।
सेठ रामकृष्ण डालमिया ने जब टाइम्स आफ इंडिया अखबार को अपनाया उस सबसे पुराने हिन्दुस्तानी अंग्रेजी अखबार का कारोबार अपने जामाता महाशय श्रेयांस प्रसाद जैन तथा अपनी लाडली कन्या रमा को सौंपा। श्रेयांस प्रसाद हिन्द के उस हिस्से के मूल निवासी थे जहां दुष्यंत शकुंतला पुत्र भरत सिंह शावकों के साथ मालिनी नदी (भागीरथी गंगा की सहायक नदी) के तटवर्ती क्षेत्र में महर्षि कण्व का आश्रम था। महार्षि कण्व ने विश्वामित्र तथा शकुंतला का पालन पोषण किया। जब शकुंतला युवा होगई उसे दुष्यंत से जो पुत्र हुआ उसका नाम महर्षि कण्व ने भरत इसलिये रखा कर्म तो किसी अन्य का पर भरपाई मुझे मानवता के नाते करनी पड़ रही है। यह था नजीबाबाद जिला बिजनौर का वह क्षेत्र जहां माहेश्वरी वैष्णव हिन्दू बनियों, जैन बनियों तथा इस्लाम धर्मावलंबी मुसलमानों का बराबर का हिस्सा है। तीनों समुदाय एक दूसरे के सुख दुख में प्रतिभागिता निभाते हैं। श्रेयांस प्रसाद जैन तथा रमा डालमिया जैन ने टाइम्स आफ इंडिया का हिन्दुस्तानी करण कर डाला। गिरलाल जैन और सरदार खुशवंत सिंह ने अखबार की संपादकीय सत्ता पर चार चांद लगाये। अखबार का कार्यक्षेत्र मराठी और हिन्दी भाषाओं की तरफ भी बढ़ा पर जब से अखबारों में मैनेजिंग एडीटर्स की बाढ़ आगई है उत्कृष्ट कोटि के संपादकीय सामने नहीं आते। टाइम्स आफ इंडिया सरीखा अखबार जब पद्मावत महाकाव्य का शीर्षक पद्मावती लिखने लगता है जो त्रुटि वर्तमान मैनेजिंग ऐडिटर के मार्ग दर्शन में एडवर्टोरियलनुमा एडिटोरियल लिखने वाले महानुभावों के अपने पूर्व संपादक गिरलाल जैन तथा खुशवंत सिंह की राह अपनानी चाहिये थी। जब पूरा पद्मावत पढ़ा ही नहीं उसे सुनीसुनाई बातों पर पद्मावती बताना क्षम्य संपादकीय त्रुटि नहीं कही जा सकती। बिना पद्मावत महाकाव्य को सांगोपांग पढ़े पद्मावत की नायिका रानी पद्मिनी को दिल्ली सल्तनत के अलाउद्दीन खिलजी से जोड़ कर देखता है। सिंहल व हिन्द के बीच जो सांस्कृतिक समरसता रानी पद्मिनी ने संजो कर रखी है उसे बिना पूरे प्रसंग का मीमांसापूर्ण अध्ययन किये जब अखबार इकतरफा फैसला देगा और अपेक्षा करेगा कि राज्य की मुख्यमंत्री जो स्वयं भी राजकुल में जन्मीं, राजपूताना के राजकुल में ब्याही गयीं उनसे अनुरोध करे कि राजपूत आंदोलनरत युवकों को कानून के अंदर लाकर दंडित करो लोकतंत्र में समस्या ही पैदा करेगा। टाइम्स आफ इंडिया के तीन फरवरी 2017 के संपादकीय पृष्ठ में महाशय पवन के  वर्मा का स्तंभ - No Country for Artists के शीर्षक Hoodisms bullying Bhansali is only latest example of the State abeting Intolrance. में अपने उद्गार व्यक्त कर रहे हैं। महाशय पवन कुमार वर्मा लेखक तथा राजनीतिज्ञ भी हैं। उन्हें पद्मावत महाकाव्य पढ़ कर अपनी कलम चलाई होती तो उनके राजनीतिक विवेक की प्रशंसा हो सकती थी बशर्ते अपने तर्कों को प्रस्तुत करते हुए अपना मंतव्य बताते। ऐसा लगता है युगांतर तो हुआ पर अभी सूर्य पूर्व में ही उगता है और पश्चिम में डूबता है। टाइम्स आफ इंडिया के समानांतर हिन्दुस्तान टाइम्स ने भी रानी पद्मिनी प्रसंग पर अपनी खोजखबर सामने रखी है। हिन्दुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर सवाल कर रहे हैं - रानी पद्मिनी क्या वास्तविक रानी थीं ? या कवि की कल्पनाशीलता की उपज ?? दीप मुखर्जी ने विख्यात इतिहासकार इफरान हबीब का हवाला देते हुए लिखा कि यक्षिणी एक काल्पनिकता है। रानी पद्मिनी का जिक्र किसी भी ऐतिहासिक संदर्भ में सामने नहीं आता। कृष्ण गोपाल शर्मा राजस्थान विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक ने यक्षिणी का सिंहल श्रीलंका से जोड़ कर देखा है। वे मानते हैं दिल्ली सल्तनत के अलाउद्दीन खिलजी प्रकरण को काल्पनिकता भी बताया गया है। चित्तौड़ गढ़ राजकीय सनातकोत्तर महाविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख हैं श्री लोकेन्द्र सिंह चूड़ावत की राय कृष्ण गोपाल शर्मा की राय से मेल खाती है। यह तो अच्छा संयोग हुआ कि संजय लीला भंसाली की फिल्म ने एक महत्वपूर्ण प्रसंग को उजागर किया है। सिंहल व हिन्द की रमणीयतापूर्ण सामाजिकता का भारत की 276 भाषाओं और सिंहल भाषा में रानी पद्मिनी गाथा को हिन्दू संस्कृति के चार अध्याय रचयिता साने गुरू जी की आंतर भारती से जोड़ कर देखा जाये। राजस्थान की मुख्यमंत्री महोदया को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संज्ञान में राजस्थान की विभिन्न रियासतों में रानी पद्मिनी गाथा पर राजस्थान सरकार का संस्कृति व भाषा मंत्रालय राजपूताना की पूर्ववर्ती रियासतों में रानी पद्मिनी संबंधी जो उल्लेख सप्रमाण प्राप्त हों उनका हवाला देते हुए मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत महाकाव्य जिसकी भाषा अवधी है पर मूल प्रस्तुतीकरण फारसी लिपि में हुआ है उस पर राजस्थान के विविध विश्वविद्यालयों तथा नामी स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के इतिहास तथा भाषा विज्ञान प्राध्यापकों का अपन मत क्या है ? रानी पद्मिनी प्रसंग एक अखिल भारतीय विचार पोखर है। सभी भारतीय भाषाओं में रानी पद्मिनी चित्रण किस परिप्रेक्ष्य में हुआ इस समेकित रूप से अवध विश्वविद्यालय लखनऊ विश्वविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद के पद्मावत महाकाव्य मंतव्यों के साथ भारतीय संस्कृति मंत्रालय तथा मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा पद्मावत महाकाव्य महारानी यक्षिणी संबंधी भारतीय भाषाओं के साहित्य की महत्वपूर्ण धरोहर के रूप में संजोया जाये। पद्मिनी प्रकरण को सटीक समझने के लिये कामशास्त्र में उल्लिखित हस्तिनी शंखिनी तथा पद्मिनी त्रयी का पुरूष स्त्री प्रसंग को वात्सायन के कामशास्त्र के तहत मीमांसित करते हुए रानी पद्मिनी आख्यान पर विशुद्ध काल्पनिक और अयथार्थ ही क्यों न हो हिन्द सिंहल स्नेह संबंध सूत्रों को हृदयंगम करने के लिये गुरूमंत्र की भूमिका निर्वाह कर सकता है। यक्षिणी प्रकरण में धर्म (व्यक्ति का वह स्त्री हो या पुरूष उसका स्वकर्तव्य ही धर्म है।) अर्थक वित्त शाठ्य का त्याग कर अपनी जरूरत के मुताबिक धन अर्जन, काम, कामिनी व कामी का संबंध तथा मोक्ष याने जन्ममृत्यु के चक्रव्यूह से बाहर आना। भारत के लोग मानते हैं - धर्मार्थ काम मोक्षाणां का जीवन चौखट जन्म जन्मान्तर का मानसिक, कायिक तथा वाचिक उत्कर्ष।
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